CLOSE TO ME

My friends,
It feels good to have my own blog.....there are things which are close to my heart and things which have affected me one way or the other.....my thoughts,my desires,my aspirations,my fears my gods and my demons---you will find all of them here....I invite you to go through them and get a glimpse of my innermost feelings....................

Wednesday, December 4, 2013

काग़ज़ नहीं जो फाड़ दिया जाए......



सोचा तो पाया कि
वे एक-दूसरे से चिपके पुराने काग़ज़ की तरह थे,
जो भीगकर सडक़ पर बिखरे थे।

एक-एक साँस,
साथ खींची और छोड़ी थी।

वक़्त की लकीरों ने,
थोड़ी देर को फक़त रोशनी की थी।
फिर बुझ सा गया था सब।
उनके अंदर तक उतर गयी थी,
रोशनी
गहरी हो गयी थी,
भीतर तक समां
फिर हल्की होती गयी।

दोमुँहाँ रोशनियों में,
बट से गये थे दोनों।

अचानक,
काले आसमान से छिटक कर,
अँधेरा,
हल्की धूल की तरह,
इधर से उधर मँडराने लगा।
कुछ अँधेरा,
पास के कोने में बच्चे की तरह दुबका था। 

मन को घेरती आशंका और उससे पैदा हुई अस्थिरता,
खुद से खुद को,
जुदा करती,
जलती-बुझती रोशनी,
भीतर की चमक,
ख़त्म करती, 
जाने मन के किस कोने में,
छिपी बैठी थी।

इसी ताने-बाने में,
याद आया,
काग़ज़ का वो टुकड़ा,
बांधे रखा था जिसने,
आज जाने किस 
भूल-भुलैयां में उन्हें छोड़,
हवा के झोंके संग,
बह गया था।
December 4, 2013 at 6.21 P.M.


Tuesday, December 3, 2013

दृश्य......................



कई दृश्य,
मेरी आँखों के सामने,
घटते, बढ़ते।
छू जाते मन को कुछ,
अछूता रहता मन कभी।

उस एकमात्र दृश्य में,
मेरी उपस्थिति,
कभी सम्पूर्णता से दर्ज नहीं हो सकी।
कभी आधी, कभी पौनी,
कभी केवल स्पर्श भर।

शायद उस दृश्य का,
कोई भौगोलिक, ऐतिहासिक,
समकालीन, आधारभूत सत्य,
मैं जान नहीं पायी कभी।

उस दृश्य की,
सिमटी हवाओं के,
रुदन से
भला कैसे परिचित हो सकती हूँ मैं?

जिस दृश्य में मैं कैद हूँ,
वही अपने आप में,
कई बेचैनियों से गुजरते हुए जीवन का प्रतिबिम्ब,
पूर्णतया समेटे हुए,
बिल्कुल ऐसे कि
बादलों से घिरी साँझ के समय,
देख रही हूँ उस दृश्य का घटना और बढ़ना।

December 2, 2013 at 11.21 P.M.

Friday, November 15, 2013

देह का सच...............

चाँदनी बिखरी थी हर ओर,
चंदा की देह,
चमकती,
अपनी ओर आकर्षित करती,
बुलाती।

खिचता चला गया था,
उसकी ओर।
रोक नहीं पाया था,
ख़ुद को,
उसे अपना बनाने से।

मोहब्बत फूट पड़ी थी,
रोम-रोम से।
हृदय के हर कोने में,
बस गयी थी वो।
रगों में,
खून के साथ,
दौड़ने लगी थी।

व़क़्त ने ऐसी करवत ली,
जुदा हो गये दो दिल।

दे न पाया,
चंदा को माँ बनने की खुशी।
रोती-कलपती और मनौतियां मानती,
बेटे की सन्तान का अरमान
अपने साथ ले,
माँ भी चली गयी।

क़र्ज़ में डूबा रोम-रोम,
उभर ही न पाया,
किसी भी युक्ति से।

गाँव में बातें होने लगीं।
चंदा माँ बनने वाली है।

लैम्प की पीली रोशनी में,
अस्त-व्यस्त-सी
दिखी चंदा।
आधा चेहरा ही दिख पड़ा,
आधा गहन कालिमा में डूबा अदृश्य।

उसे देख लगा,
कि एकदम नंगी हो गई वो।
अतिशय लज्जित हो,
समटने लगी ख़ुद को।

उसे लगा,
घर के हर कोने से,
अन्धेरा सैलाब की तरह बढता आ रहा था।
एक अजीब निस्तब्धता,असमंजस।
गति तो थी,
पर मंज़िल का पता नहीं।
शक्लें तीन,
पर कोई आकार न था।

सब्र का बाँध टूट गया,
"बेशर्म! बेग़ैरत!
कहाँ इज़्ज़त बेच आई?"

सीसकती चंदा बोली,
"लेकिन जब तुमने मुझे बेच दिया.......''
 

Wednesday, October 2, 2013

बुद्ध का सत्‍य........



ज़ख़्मी कबूतर ने,
तुम्हें ऐसा घाव दिया,
कि उसका ज़ख़्म.
तुम्हारी आँखों से बह निकला।

पहली बार जब दुख देखा,
तुम्हारी रूह तक काँप गयी।
बीमार को देख,
तुम्हारी अंतरात्मा तक बीमार हो गयी।

मौत ने ऐसा झंझोड़ा,
कि तुम सत्‍य की खोज में निकल पड़े।
मुड़ कर एक बार नहीं देखा,
कि मैं, यशोधरा, स्तब्ध, निशब्द,
तुम्हें रोक भी न पाई।

तुम बुद्ध हो गये।
मेरी न ख़त्म होने वाली खोज,
आरम्भ हो गयी।

तुम दुखों का अंत,
ढूँढने निकल पड़े।
अकेलेपन से जुड़े,
मेरे दुखोँ का प्रारंभ हो गया।

तुम शाँत हो गये,
मेरे ग़मों की उग्रता को,
कोई देख नहीं पाया।

(October 2, 2013 at 8.26 P.M.)

Monday, September 30, 2013

कैसा यह शहर है........


कैसा यह शहर है,
इंसान हैं, पर दिल नहीं
दोस्त हैं, पर दोस्ती नहीं।
हर कोने में मक़ान हैं,
घर तो दिखते ही नहीं।

खटखटाया था इक मक़ान का दरवाज़ा,
ईमां की दीवारें ढह रही थीं
ज़िंदगी रेत की मानिंद,
हाथों से फिसलती दिखी।

झूठे रिश्तों पर टिका,
हर बाशिन्दे का महल दिखा।
आँखों में रोशनी तो दिखी,
पर प्यार की सच्चाई नहीं दिखी।

कैसा यह शहर है,
इंसान हैं, पर दिल नहीं

आसमां तो दे देते हैं,
पाओं तले से ज़मीं खींच लेते हैं।
सीने में दिल तो है शायद,
प्रेम का दिया जलता नहीं।

तलाशता है हर आदमी,
अरमानों का खूं करने को।
मोहब्बत जो आँखों तक पहुँच जाए,
ऐसे जज़्बात दिखते नहीं।

(लौट जाती है दीवारों से टकरा कर आवाज़ें.....दिलों की धड़कन कोई पहचानता नहीं............)
September 30, 2013 at 12.42 A.M.





Wednesday, September 18, 2013

वक़्त देखो कितनी तेज़ी से चलता जा रहा है.....................


वक़्त देखो कितनी तेज़ी से चलता जा रहा है,
अपने वेग से उड़ता जा रहा है,
हम हैं कि वहीं के वहीं बैठें हैं,
जाने क्या सोचते रहते हैं,
जीते तो हैं ही नहीं किसी भी पल को,
हर पल इक नयी मौत मरते रहते हैं,
बस वक़्त काटते रहते हैं,
और यह बेदर्द व़क़्त हमें ही काटता रहता है,
कहीं पहुँच नहीं पाते,
न ही कहीं पहुँचने की तमन्ना रखते हैं,
बस गुज़ारते रहते हैं यूँ ही ज़िंदगी,
बिना कुछ पाये,
सब गवायें बैठे हैं,
न किसी को अपना बना सकते हैं,
ना किसी के हो सकते हैं, 
फिर वक़्त हथेली से,
रेत की मानिंद बिखर जाता है,
और हम उसका गुबार देखते रहते हैं.......
(.... इक दिन सब मिट्टी में मिल जाना है, बस हम ही नहीं समझ पाते हैं....)
September 18, 2013 at 12.04 A.M.

Monday, September 2, 2013

क्या बस इतना ही काफी नहीं ...

याद है क्या तुम्हें,
कहा था इक दिन तुमने:
मन की भाषा को,
दूसरा समझ ले,
बिना कुछ कहे

इस अनकही को सुन,
मन, 
आनंदित हो,
पुलकित हो।

और भाव-विभोर हो,
मिल जायें दोनों इक दूजे से,
जिस तरह क्षितिज पर 
मिलते हैं,
धरती-आकाश,
जैसे  भावों और सोच के धरातल पर  
एक दूसरे से मिल लें
और लीन हो जायें,
इक दूजे में।

क्या बस इतना ही काफी नहीं ...

हवा बन बहते रहे तुम... खोजती तुम्हें, रुकी जब निढाल हो गयी......पा न सकी पर तुम्हें.......
(September 1, 2013 at 11.24 P.M.)

Friday, July 19, 2013

GRATITUDE .




It doesn't have to be the vast sky,
it doesn't have to be the fathomless earth.
It could be a small patch,
or shade under a tree. 

Listen, 
just pay attention.
It was never a contest to be won,
nor a mountain to be climbed.

Just one word,
nothing elaborate.
A doorway,
towards success.

Gratitude is all I have,
and then, silence.
For another voice to speak.
July 19, 2013 at 1.21 A.M. 

Monday, June 10, 2013

नासमझ प्यार की समझ....../ समझ भरे प्यार की नासमझी...



तुम्हारे आने पर,
मैने देखा,
हँसता द्वार, चहकती ड्योढ़ी!
फिर तुम क्यों,
चुप से खड़े रहे?

बादल बन आये तुम,
जीवन पर छाये तुम,
बूँदों से अपनी,
शीतल करते तन-मन!
फिर तुम क्यों,
चुप से खड़े रहे?

याद हो आया,
तुम्हारा वो ख़त,
जिस में वो रात थी,
जुदाई के कारण,
दूर बिताई थी जो हमने!
उस ख़त को याद कर,
क्यों चुप से खड़े रहे तुम?

ख़त में थी,
वो सब बातें,
करवटें बदलते,
कहना चाहते थे,
जो तुम मुझे!
बिस्तर की उन सलवटों को देख,
क्यों चुप से खड़े रहे तुम?

कितनी खूबसूरती से,
हाले-दिल बयाँ किया था तुमने!
अपने दिल के सच को जान,
क्यों चुप से खड़े रहे तुम?

तुम्हारे ख़त में
सब कुछ होता था!
दर्द, प्यार, एहसास,
विरह की वेदना, साथ होने का एहसास,
दूरियों का हिसाब-किताब!
सारा हिसाब-किताब जान,
क्यों चुप से खड़े रहे तुम?

ना जाने इस दिल को क्या सूझी
तुम्हारे ख़त को फिर पढ़ने का,
मन हो आया!
हाथ तकिये के नीचे गया तो,
आँखों की नमी फैली हुई मिली!
भीनी-भीनी, मीठी सी मुस्कराहट में घुली,
आँखों की नमी को देख,
क्यों चुप से खड़े रहे तुम?

(प्यार की समझ तो हम दोनों को थी----- और नासमझी से प्यार कहाँ किया था हमने-----)
((डायरी का वो पन्ना आज भी मूँह बाये देखता है मेरी ओर--- समझ भरे प्यार की नासमझी लिख रखी जिस पर हमने---))

June 11, 2013 at 2.08 A.M.

Saturday, June 8, 2013

प्रेम की भाषा शब्‍द-‍रहित है------



शब्दों के संग,
शब्द-रहित,
हर तरह से प्रेम किया हमने!

जब नाममात्र के लिए भी शब्‍द नहीं थे,
मौन था,
व्‍याख्‍यान देता हुआ भी, 
व्‍याख्‍यान के पीछे छिपा भी,
प्रेम ही तो था!

राग गाता हुआ भी,
राग के सुर के भीतर पड़ा भी,
प्रेम ही तो था!

मृदु वचनों की मिठास में,
लरजते होठों की कंपकंपाहट में,
खामोश आँखों की इबादत में,
प्रेम ही तो था!

लहरों का चुप-चाप, 
पत्थरों को छू जाना,
प्रेम ही तो था!

न काला, न नीला, 
न पीला, न सफेद, 
न पूर्वी, न पश्चिमी, 
न उत्‍तरी, न दक्षिणी, 
बे-नाम, बे-निशान, बे-मकान,
विशाल,
मौन रूप से, 
अपनी निशब्दता से,
सुगन्ध फैलाता,
प्रेम ही तो था!

मौन से प्रसूत प्रेम,
जैसे तीक्ष्‍ण गर्मी से जले भुने व्यक्ति का, 
काले बादलों की बूँदाबाँदी से शीतल हो जाना!
जैसे थरथराती उँगलियों को,
तुम्हारे शरीर की छुअन का मिलना!
जैसे पत्तों पर,
ओस की बूँदों का गिरना!

(प्रेम की भाषा शब्‍द-‍रहित है------ नेत्रों की, कपोलों की, मस्‍तक की भाषा भी शब्‍द-रहित है---- जीवन का तत्‍व भी शब्दों से परे है-------)
((शब्द-रहित मौन, प्रेम की निश्छल कविता-- धूप में टहलते शीतल बादलों की छाया-- ))

June 8, 2013 at 12.47 A.M.

Wednesday, June 5, 2013

फेसबुक की दुनिया....



अजब है फेसबुक की दुनिया! 
हज़ारों मील दूर बैठे लोग,
मित्र बन जाते हैं!
धीरे-धीरे, वही लोग,
रोज़ मर्रा की ज़िंदगी का,
हिस्सा बन जाते हैं!

रात में कुछ लिख कर,
पोस्ट करो!
और फिर इंतज़ार करो,
उन अनदेखे, अनजाने मित्रों के,
लाइक्स का, टिप्पणियों का!
नहीं आती जब कोई प्रतिक्रिया,
बोझिल हो जाता है मन!
'देखा नहीं क्या किसी ने,
मेरी पोस्ट को?
पसंद नहीं आया क्या,
जो मैंने लिखा है?
इतना भी समय नहीं,
क्या किसी के पास,
देख और पढ़ ले,
मैंने क्या लिखा है?' 
एक बैचैनी घेर लेती है!
कुछ अच्छा नहीं लगता!
ध्यान बस उसी ओर रहता है!

कुछ ऐसे भी हैं,
'आइ लव मॉम एंड डेड' पेज को
लाइक करते हैं!
पोस्ट करते हैं अपनी वॉल पर!
जताते हैं उन आभासी मित्रों को,
'देखो मैं कितना चाहता हूँ,
अपने माता-पिता को!'
दुत्कारते हैं जो असल ज़िंदगी में,
अपने ही माता-पिता को!

देशभक्ति के गीत पोस्ट करते हैं,
अपनी वॉल पर!
खास मित्रों को कहते सुना है जिनको,
'भगत सिंह था बहुत बहादुर,
देश के लिये जान दे दी उसने!
पर, मेरे घर भगत सिंह पैदा हो,
ऐसा कब चाहा है मैंने!'

खामोश तन्हा रातों में,
उनकी वो बेबाक बातें,
फिर वीडियो चॅट(chat) पर,
उनका वो शर्माना,
वो मासूम सी हँसी!
सोने से पहले,
फेसबुक पर उनकी तस्वीर देखना!
मन ही मन उन्हें प्रेम करना,
फिर एक दिन खबर का आना,
फेसबुक की अधिसूचना (नोटिफिकेशन) के ज़रिये,
कि उनकी शादी है,
आते महीने कि २० तारीख को!
आभासी दुनिया के प्रेम का,
केवल आभास बन रह जाना!
तब समझ में आना,
जो थे हमारे लिये जीने की वजह,
हम केवल उनकी फ्रेंड लिस्ट में इक नाम थे!

(दस्तक दे दी है फेसबुक की आभासी दुनिया ने हमारी असल ज़िंदगी में-----झाँक रही है ये हमारे भीतर---- अब कुछ नहीं रहेगा छुपा--- बेनूर लगती है ज़िंदगी फेसबुक के बिना-------)
June 5, 2013 at 6. 23 P.M.



 








स्वपन से जागा नहीं शायद मैं---



मेरे अचेतन मन में,

तुम्हारे होने के भाव उठे!
शब्दों से,
निशब्द हो भी,
मैंने पुकारा तुम्हें!
मेरे उन शब्दों-निशब्दों की,
प्रतिध्वनि  बन जाना तुम!

सर्द रातों में,
मुझे छू जाने वाली,
हवाओं में घुल जाना तुम!

स्मृति की वादियों में,
जब मेरे प्रेम का बदन,
ठंडा पड़ने लगे,
अपने एहसास की गर्मी से,
मुझे फिर से ज़िंदा कर जाना तुम!

सावन की पुरवाई में,
मेरे मन के घावों पर,
मरहम लगा जाना तुम!

पीड़ा जब हद से गुजरने लगे,
मेरी हर धड़कन में समां,
मुझे फिर से ज़िंदा कर जाना तुम!!!

(स्वपन से जागा नहीं शायद मैं--- मेरी पलकों में डोलती तुम्हारी मुस्कराहट, आँखें खुलने पर घुल जाती है फिज़ाओं में.....................)
June 4, 2013 at 11.37 P.M.






कुछ कहना चाहती हूँ आज तुमसे.....




सुनो-----
कि आज कहना चाहती हूँ कुछ तुमसे,
कुछ ऐसा
कि न सुना हो तुमने पहले कभी,
और न कहा हो,
मैंने पहले तुमसे कभी!


कहना चाहती हूँ
कि तुम आदम,
मैं हव्वा,
दोनों को बनाया था
ईश्वर ने,
इक दूजे का पूरक!

कहना चाहती हूँ
कि अंधकारमय था जीवन,
अब तक!
तुमसे मुलाकात क्या हुई,
रौशनी से मुलाकात हो गई!
आज उजालों की लपेट में,
नाच रही है ज़िन्दगी!

कहना चाहती हूँ
कि तन्हाइयाँ पलती थीं
आँखों में!
आज उन में
तेरे दीदार के दिए रौशन हैं!

सुनो-----
कि आज कहना चाहती हूँ कुछ तुमसे,
कुछ ऐसा
कि न सुना हो तुमने पहले कभी,
और न कहा हो,
मैंने पहले तुमसे कभी!

कहना चाहती हूँ
कि तेरे आने से
हर इंतज़ार ख़त्म हो चला है!
जीने की वजह मिल गई है!
रोशन है दिल का हर कोना,
सुरमई रंग छाये हैं हर सु!

(कम ही होता है कि प्यार की दस्तक से गुनगुना उठता दिल का हर कोना......) 
((कोई अफसोस नहीं, कोई भूल नहीं---- केवल प्रेम था हमारे बीच-------))
started writing this poem on August 25, 2012
completed it on June 5, 2013 at 3.58 P.M.