CLOSE TO ME

My friends,
It feels good to have my own blog.....there are things which are close to my heart and things which have affected me one way or the other.....my thoughts,my desires,my aspirations,my fears my gods and my demons---you will find all of them here....I invite you to go through them and get a glimpse of my innermost feelings....................

Saturday, September 17, 2011

वक़्त.....

गर उनका आना हो जाता
वो भी वक़्त से कुछ लम्हे चुरा लेते!
पर बेरहम वक़्त को कहाँ मंज़ूर!
वक्‍त तो वक्‍त है!
किसी की भावनायों की,
वक़्त को क्या पड़ी!
पर किस-किस की भावनायों का ध्यान रखे वो?
यह तो अपना काम करता है बस!
जो समझते हैं वक़्त को,
उनकी भावनाएं तो समझ सकता है कमबख्त!
वक्‍त, पर, किसी के साथ नहीं रहता,
सब वक्‍त के साथ रहते हैं!
पर हाथ नहीं थामता किसी का!
बस संकेत भर करता है
कि चले आओ----
सब घबराहटों को पीछे छोड़कर,
मैं साथ हूं तुम्‍हारे------
September 17, 2011 at 4.33 P.M.

Thursday, September 15, 2011

मृगतृष्णा....

हाथ जब तुमने थामा,
कहा कि सात जन्म न छोडूंगा!
मैं तुम्हारा शिव, तुम्हारा राम,
तुम्हारा कृष्ण बन दिखलाऊँगा!
न तुम शिव बन मेरा मान रख पाए,
न मेरे राम बन पाए,
न ही कृष्ण सा प्यार कर पाए मुझसे!
मैंने कब तुमसे शिव माँगा,
कब चाहा कि तुम राम या कृष्ण बनो मेरे!
एक प्रेमी चाहा था,
जो मेरा हाथ थाम
चलता रहे मेरे साथ!
मगर....तुम्हारा साथ,
.....तुम्हारा प्यार
सब मृगतृष्णा निकला!
September 15, 2011 at 10.33 P.M.

Wednesday, September 7, 2011

बारूद....

घर से निकले थे काम पर,
कह कर गए, मिलेंगे शाम होते!
राह में नज़र के सामने,
था वीभत्स नज़ारा!
दरिंदों ने फिर किया था वार,
चारों ओर रुद्रण, चीत्कार, हाहाकार!
कहीं खून के लोथड़े,
कहीं कटा हाथ!
कहीं माँ की गोद में बच्चे का धड,
कहीं बच्चे के सामने पिता की लाश!
ज़ार-ज़ार रो रहीं थी आँखें,
कहीं मौत का सन्नाटा!
ज़िन्दगी बिखरी पड़ी थी चारों ओर,
मौत का था नंगा नाच!
जिस्म घायल. रूह छलनी
मन विचलित,
आँखें नम!
क्या कहें कि हो मन की व्यथा कम!
धीरज रख ऐ मन,
होगा इस काली रात का सवेरा भी!!!!!!
September 07, 2011 at 10.05 P.M.

Friday, September 2, 2011

दर्द की दास्ताँ-- एक लघु कथा

रोज़-रोज़ मरती थी वो! पति हर रात दारू के नशे में बुरा-भला कहता! सुनती! कभी रोती! कभी बस आह भर रह जाती! जाने कौन घड़ी में माता-पिता ने ऐसे व्यक्ति से सम्बन्ध जोड़ा था! उस समय तो सब बहुत अच्छा ही दिख रहा था! सब ठीक था भी! शराब तो वो पहले भी पीता था! परन्तु इतनी अती की नहीं! 
अब ऐसा क्या हो गया था? वो समझ नहीं पा रही थी! पहली बार जब उसके पति ने उस पर हाथ उठाया था, दंग रह गयी थी वो! कभी सोचा न था कि उसके साथ भी ऐसा होगा! सुना था, देखा भी था कि औरत को पति अपनी जागीर समझता है, कभी भी कुछ भी कर सकता है! पर स्वयं के साथ ऐसा हुआ तो भौंचक्की रह गयी वो!
'मैं इस तरह का व्यवहार बर्दाश्त नहीं कर सकती!' 
'तो जा अपने बाप के घर, जिसने बाँध दिया है मेरे साथ तुझ जैसी को!' 
'मुझ जैसी को? मुझ जैसी को? पढ़ी-लिखी हूँ! देखने में भी अच्छी हूँ! क्या खराबी है मुझ में?' 
कुछ मजबूर कर रहा था अन्दर से उसे! सालों से पढ़ा सब पूरे वेग से बाहर आने को मचल रहा था! 
'ज़बान लड़ाने की ज़रुरत नहीं! खाने में क्या है?' 
'दाल, भिन्डी, रोटी, प्याज!' 
'तंग आ गया हूँ मैं इस रोज़-रोज़ की दाल-रोटी से! कोई वरिएटी नहीं होती! कभी तो कुछ भिन्न बनाये कोई! पर इन्हें क्या फरक पड़ता है! इन्हें तो बस निबटाना होता है! डाल दिया कुत्ते की तरह आगे! लो खाओ और बस!' 
उसका मन तो किया कह दे, 'हाँ सही ही तो है !तुम भी तो कुत्ते की तरह ही भौंक रहे हो !' 
पर किसी चीज़ ने रोक लिया उसे! जाने क्या सोच कर चुप रह गयी! समय के साथ यह सब बढ़ता गया! अब गन्दी गालियाँ भी हिस्सा बन गयीं थीं रात की बातों का! कोई ऐसा कटाक्ष नहीं था, जो वो अपनी पत्नी पर नहीं मारता था! कोई ऐसा व्यंग्य नहीं था, जो उसकी बातों का हिस्सा नहीं था! तीर की तरह चुभती थीं उसकी बातें पर वो फिर भी उसकी बेवजह की बकवास सुनती थी! 
दस मिनट में सब ठीक! मानो कुछ हुआ ही न हो! अब मतलब था! संभोग करना चाहता था पत्नी से! उसे तो होश ही नहीं था कि क्या -क्या कह गया था वो शराब के नशे में! 
पत्नी को तो यह मंज़ूर न था! एक मिनट में गाली-गलौच और अगले मिनट सब सही! 
'हाँ-हाँ तुम क्यों मेरे साथ सोओगी. तुम्हारे साथ तो बहुत है न सोने वाले! जाओ उनके पास! उन्हीं के साथ रह भी क्यों नहीं लेती?' 
पिघले सीसे सी उसकी बातें मन को छलनी करती अंतरात्मा तक उतर गयीं! उस रात भी बहुत कहा-सुनी हुई! पर वो अड़ी रही! जिस के लिए उसका मन नहीं वो क्यों करे वो सब? उसे वो वक़्त भी याद था जब घर छोड़ कर चली गयी थी वो! बर्दाश्त से बाहर होता जा रहा था सब! सोचा था चली जायेगी सदा के लिए! दुनिया बहुत बड़ी है! कहीं भी रह लेगी! घर पर फ़ोन किया था कहने को कि वापिस नहीं आएगी कभी! बिटिया ने फ़ोन उठाया था! 
'मम्मी, कहाँ हैं आप? कब आ रही हो? बिट्टू ने कुछ नहीं खाया और मैंने भी! पापा कहते हैं कि अब तुम्हारी मम्मी नहीं आएगी! खाना है तो खाओ! नहीं तो भूखे मरो! मेरी बला से!' 
उलटे पैर लौट आई थी ऑटो कर के! बहुत हंगामा हुआ था! सबको इकठ्ठा कर लिया था उसके पति ने! कैसे हाथ जोड़-जोड़ कर माफ़ी मांग रहा था उसका पिता! भुलाए नहीं भूलता था वो मंजर! बिटिया और बिट्टू ऐसे चिपक गए थे जैसे कभी माँ से मिले ही न हों! बहुत कुछ कहना चाहती थी पर आवाज़ जैसे गले में दब कर रह गयी! 
जेठ-जेठानी,सास-ससुर, बुआ सास, किसी ने कसर नहीं छोड़ी! उसका पिता और ज़मीन में गढ़ता गया! माँ की आँखों से तो जैसे गंगा-जमुना बह निकली थी! 
'लानत है तुझ पर जो अपने माता-पिता को इतनी ज़िल्लत का सामना करवाया!' 
वो मन ही मन खुद को कोस रही थी! पति की हिम्मत बढती गयी! अब हाथ कम उठाता था पर जुबां से ज़हर टपकना बंद नहीं हुआ! बल्कि अब तो समय के साथ ज़हर बढ़ता ही जा रहा था! अब वो आगे से जवाब भी देती! परन्तु क्या फायदा! वो एक सुनाता, वो दो सुनाती, फिर दो के चार और चार के आठ! सुबह ऐसे कि रात कुछ हुआ ही न हो! 
वो भी सोचती, 'चलो कुछ देर तो राहत मिली!' 
जाने क्या डोर थी जिसने बाँध रखा था उसे उसके साथ! 
एक दिन बच्चों से कह ही दिया, 'अब न सह सकूंगी और! अब तो जाना ही होगा मुझे इस घर से!' 
बिटिया की बात ने दिल छलनी कर दिया! 'हाँ-हाँ, तुम्हें कब किसकी परवाह थी जो अब होगी! तुम कभी किसी के लिए जी ही नहीं! बस अपना ही सोचा सदा! बाकी जाएँ भाड़ में!' 
सन्न रह गयी थी वो! क्या बिटिया ने नहीं सुना था अपने पिता को कहते हुए बहुत बार, 'जा चली जा जहाँ जाना है! मुझे तुझ से कोई वास्ता नहीं!' 
क्या उसने अपनी माँ का दामन आंसुओं से भीगा नहीं देखा था कई बार? क्या उसे नहीं पता था कि उसका पिता कहता था यह सब क्योंकि उसे पता था कि उसकी पत्नी का और कोई ठिकाना नहीं था? कहीं नहीं जा सकती थी वो अपने बच्चों को छोड़ कर! बहुत हिम्मतवाली थी पर शायद वक़्त ने कमजोर बना दिया था उसे! या शायद दर्द को पहनते, ओढ़ते, दर्द उसके जीवन का हिस्सा बन गया था! 
सांझ ढल रही थी! सूरज डूबने को था! उसे अपने डूबते चले जाने की तमाम बातें याद आती रहीं! पर अचानक आसमान में चांद चमकने लगा! तारे टिमटिमाने लगे! उम्‍मीदें अभी मरी नहीं थीं! रात तो थी पर सुबह की घोषणा करती हुई! अंधेरा कितना भी हो, टिमटिमाते तारे राह दिखाते ही हैं----उसने सोचा! सोचा और कदम मजबूती से चल पड़े! रास्‍ता उसका अपना था! जाना पहचाना! वह जानती थी इसे बरसों से! आज चलकर देख पा रही थी वह! अपने फैसले कितना सुकून देते हैं------सच!!!!!!!!!!!! 
(September 2, 2011 at 1.08 A.M.)