CLOSE TO ME

My friends,
It feels good to have my own blog.....there are things which are close to my heart and things which have affected me one way or the other.....my thoughts,my desires,my aspirations,my fears my gods and my demons---you will find all of them here....I invite you to go through them and get a glimpse of my innermost feelings....................

Thursday, December 20, 2012

कड़वे-मीठे संबंध......




बहुत समय से वक़्त बिता रहे थे साथ,
कितना समय बीत गया, कैसे,
पता ही नहीं चला!
कितनीं बातें,
कितनीं यादें,
मीठी- कडवी,
सब याद था उसे!

मीठी यादों को ताज़ा कर,
जीवन के कड़वेपन को,
साथ मिलकर बाँटा था दोनों ने!
बच्चे बाँटते हैं जैसे सब,
दो दोस्त बाँटते हैं जैसे,
हर सुख-दुःख,
बाँटा था सब उन्होनें भी!

विचारों में,
समानता आने लगी थी!
पढ़ नहीं सकते किसी की सोच को,
पर, विचारों की गहराई,
समझने लगे थे इक दूसरे की!

कहा उसने:
"केवल दो लोग ही समझ पाए मुझे आज तक!
एक तुम और एक मेरा मित्र!"
धड़कन रुक गई,
समाँ ठहर गया,
रगों में खून जम सा गया!
ग़र वो दोस्त था,
तो मैं क्या हूँ?
झंझोड़ कर रख दिया,
इस सवाल ने!

तय नहीं कर पाया मैं,
कि हमारे विचारों में,
एकरुपता किस हद तक थी!
नीम के पत्तों से कड़वी बात,
गले के नीचे कैसे उतरे?
रिश्ते की मिठास को,
निगल गई बात की कड़वाहट!

कहा उसने:
"जिसे वह अपना मानने लगती है,
वह चला जाता है उसे छोड़!"
पर इस बार कोई छोड़कर नहीं जाने वाला उसे,
वह उसे खुद छोड़कर जाने वाली थी!
छोड़ जाने वाली थी,
अपने पीछे,
कुछ कड़वी-मीठीं यादें,
जो रहने वालीं थीं,
हर दम उसके साथ!


(मेरी सजा कितनी लंबी है, यह वक्त भी नहीं जानता! वह इस क़ैदखाने से आजाद हो चुकी थी ......)
 December 20, 2012 at 10.24 P.M.

Monday, December 17, 2012

ख़त


एक-एक लफ्ज़,
हर लफ्ज़ में सिमटी ज़िन्दगी,
कैसे भुला सकती थी वो!
हर लफ्ज़ में हकीकत थी!
आँखों के रास्ते दुःख बह चला था!

सच्चाई की प्रतिधवनि,
गूँज रही थी हर ओर!
सुन्दरता की परिभाषा,
देह से अधिक,
उसके व्यक्तित्व में थी,
समझ चुकी थी वो!

सम्बंधों को खींच- तान कर,
नहीं बनाया रखा जा सकता था,
जान चुकी थी वो!
रेत के महल से ये संबंध,
हवा के झोंकों से टूट,
रेज़ा-रेज़ा हो बिखर सकते थे,
जान चुकी थी वो!

हर लफ्ज़ में,
दिल के रिश्ते,
चट्टानों से भी मज़बूत होते है,
समझ चुकी थी वो!
वक़्त का तूफ़ान,
मुसीबतों की आंधी,
हिला नहीं सकती थी उन्हें,
समझ गयी थी वो!

समाज की बनायीं,
तख्ती पर नहीं टांगना था,
लफ़्ज़ों में छुपे उन रिश्तों को,
जान चुकी थी वो!
संबंधों की लम्बाई-चौड़ाई,
नहीं नापनी थी उसे,
जान गयी थी वो!
लफ़्ज़ों में छुपी गहराई,
समझ गयी थी वो!

(ख़त फटने की हालत में था----लफ़्ज़ों ने संबंधों को सी कर रखा था-------)

December 16, 2012 at 11.38 P.M.

Thursday, December 13, 2012

यादों के पल.......


वक़्त चलता रहा, कुछ साथ रहा, कुछ पीछे छूट गया! 
निरंतर चलता यह क्रम, जाने कहाँ तक बहा कर ले गया! 
दरवाज़े की कुछ आहटें, सरगोशियाँ करती, तुम तक पहुँच गयीं! 
पर्दों से छन कर आती, सूर्य की रौशनी, तुम पर आ ठहर जाती! 
जिंदगी नए पंखों से उड़ान भरती, वक्त के पहिए पर सफर करती, कुछ पल दे गयी!
एक शाम अचानक, पलों का कारवाँ, कहीं पीछे छूट गया!
तुम तक पहुँचने वाली रौशनी, उदासी के में बदल गयी!
ठहरे हुए पल, बेतरतीब पड़े, बस याद दिलाते रहे तुम्हारी!!!!!


(यादों के पल, धुंधले हो, तुम तक आ रुक जाते हैं..........)
(( क्या जरूरी है कि जिंदगी करीने से जी जाए--- उन पलों के बिना..........)) 





(Dec., 2012 at 9.38 P.M.)
मेरे दामन में क्या-कया न डाला तुमने; आसमान कम पड़ गया उसे फैलाने को।। mere daaman mein kya-kya na daala tumne; aasmaan kam pad gaya use phailaane ko......6.04 P.M. (03.12.2012)

Friday, August 10, 2012

LETTING GO


Letting go of a loved one is hard.
When that person is loved deeply,
letting that person out of your life is like tearing away a part of yourself.
The pain can be so intense as to debilitate a person.
But, the loved one has to be let go.
A future awaits her,
a new life.
She has taken the first step
towards her new, onward journey.
Heart has to be made strong
to bear the separation,
with a smile on the face.
Shed tears in private
but rejoice.
Be delighted
that the loved one is going to make
a life of her own.
Revel in her achievements
and feel proud.
August 10, 2012 at 11.44 P.M.

डायरी के पन्ने----II--


पन्ने फिर से पलट रहा हूँ!
समझ पा रहा हूँ,
कितना मुश्किल है यह जीवन!
मित्र का पता मिला था,
एक पन्ने पर!
सोचा था मिल आऊँ!
नहीं रहता अब वहां कोई!
पता लगा, चल बसा था वो,
कई बरस पहले!

सब तो था उसके पास,
फिर अचानक क्या हुआ?
अकेला था, सबने कहा!
अपने भीतर उदास, बदरंग
रौशनियों का शहर लिए फिरता था!
बेमतलब भटकता था मन,
उस शहर की अंधेरी, संकरी गलियों में!
पूरा दिन, पूरी रात भटकता था,
बिना जाने कि जाना कहां था?

मौत को लेकर आतंकित था,
कि जब वह आदमी मरेगा
तो यह सारी झंझट होगी!
क्या, कहां, कैसे, कब?
टुकड़े अस्त व्यस्त बिखरे!
मौत के सारे अनजानपन को देखते हुए,
उसके सारे टूटे फूटेपन को देखते हुए,
मैं चला आया!

जीवन बेहद अकेला,
कौन रहता,
उस पत्थर के घर में???

सितार के तारों की आवाज़
आती थी इक घर से!
सितार पर दौड़ती-फिसलती उंगलियों से
ऐसे सुर उठते, हवाओं में ऐसा रंग बहता
कि उदासी के सब धुंधलके
उसमें धुल जाते!
लगता कि सितार के तारों से बहकर
कोई नदी मेरी ओर चली आती!
उसका एक-एक सुर मेरी उंगलियाँ थामकर कहता,
क्‍यों हो इतने उदास?
देखो न, दुनिया कितनी सुंदर है..
आज सितार की आवाज़ नहीं आती!
इक चुप्पी है, इक ब्यावः ख़ामोशी,
जो हर लफ्ज़ को निगलती जा रही है!

वो शहर बहुत चमकीला था!
हर घर से चमक निकलती थी!
लेकिन, उसकी हर चमक से,
लोगों के दिलों के अंधेरे और गाढ़े हो जाते!
एक अजीब सी विडम्बना है!


(उतरती घनी रात.... घरों से बह-बहकर आती रौशनी...एक पेन और भूरी जिल्‍द वाली वो डायरी.....)
August 10, 2012 at 10.54 P.M.

Tuesday, August 7, 2012

डायरी के पन्ने.....


पुरानी डायरी को खोला तो पाया,
बेतरतीब सी कई ख्वाहिशें,
कुछ वाजिब-गैरवाजिब से सवाल.
कई सौ शुबहे,
कहीं एक-आध स्वीकरण,
ढेरों सपनें और उमंगें,
और गुज़रे वक़्त में खुद की शनाख्त:
बिखरे पड़े थे सब,
ऊपर-नीचे लिखे चंद जुमलों में!!!

पाया खुद को पिताजी की,
टेढ़ी भृकुटियों में!
माँ की पेशानी की,
सलवटों में!
भाई की डांट-फटकार,
और बहिन के दुलार में!

पाया एक सूखा गुलाब का फूल,
जाने कितने ही वाक्यात,
स्मरण हो आये!
आज भी महकता है,
तुम्हारी खुशबू से!
हर बार एक से एक नई खुशबू,
साया बन साथ चलती है,
कि ज़िन्दगी के मुरझाये हुए तमाम फूलों को,
कई बरस ताज़ा कर जाती है!

पन्ना पलटा,
सुबह, कमरे में,
एक धुंधली 
सी मुस्कराहट  फ़ैली थी!
दोपहर आई,
कमरे की दीवार से,
गुप-चुप, दरारों से,
चमकीले पर्दों से छन कर,
यह क्या अन्दर आया?
अरे! यह तो उदासी है,
जो कई बार ऐसे ही वक्त बे-वक्त
अचानक आ जाती है!

डायरी का पन्ना,
मुस्कुराता जान पड़ता है अब!
चाँद की चाँदनी,
बिखरी है हर ओर!
तारों की कदमताल के साथ,
फ़िज़ां में घुल रहा है तेरा ख्याल!
याद हो आया है वो सुखा गुलाब,
बिखेरी थी खुशबू,
जिसने जीवन में हर सू!

छंद की बंदिशों से परे,
आजाद और उन्मुक्त,
एक प्रेम का संपूर्ण विस्तार.,
क़ैद है मेरी डायरी के पन्नों में!

वगैरह-वगैरह...


(भूल- भूलैया नुमा इस दुनिया की, उबड़-खाबड़ पथरीली अंधेरी घाटियों में भटकते-भटकते, अनगिनत पत्थरों से अनगिनत ठोकरें खाते-खाते, इन लहूलूहानी कदमों के, कुछ तुजुर्बों के कीमती हीरे मिल जायेंगे मेरी डायरी के पन्नों में.....)

August 6, 2012 at 8.48 P.M.



Here is THE English translation of my poem "DIARY KE PANNE" at the behest of a very dear friend......

PAGES OF THE DIARY......

Going through the pages of my old DIARY,
I found--
Some random desires,
a few warranted and unwarranted questions,
hundreds of doubts,
a confession and-a-half,
many dreams and joys,
and, trying to find my own identity of the past:
all scattered,
in haphazard sentences.

Found myself in my father's
twisted frowns,
in the wrinkles
on my mother's forehead,
in my brother's scoldings
and in the caresses of my sister.

Found a dried rose
and I recalled
many incidents.
It gives a sweet smell still
because of your scent.
Every time a new fragrance,
walks with me still as my shadow,
so that it freshens up,
all the dried flowers of life,
for years to come.

As I turned the page,
morning, like a pure smile,
spread in the room.
Afternoon came.
From the walls of the room,
quietly, through the cracks,
filtering through the bright curtains,
what has entered?
Oh! This is sadness,
which has come oft enough,
at times in an untimely manner,
and quite suddenly, in my life.

The page of the DIARY
appears to be smiling now.
Moonlight is spread everywhere.
With the quick-step of the stars,
your thoughts,
are becoming a part of the atmosphere.
I am reminded of the dried rose,
which had spread fragrance,
in life, all around.

Beyond the limitations of verse/meter,
free and unfettered,
complete elaboration of a love,
is captive in the pages of my diary.

Etcetra, etcetra.........

(In the labyrinths of this world; wandering in the dark, rugged, stony vales; stumbling countless times across numerous stones; with these bleeding feet; you will find priceless diamonds of some experiences in my DIARY.....)


August 10, 2012               

गैंदे का फूल......


क्या वक़्त था,
तुम्हारे लिए जब,
बाग़ से गैंदे का फूल लाया था!
तुम मंत्र्मुग्द सी, देखती रही थी उसे!

गैंदे की हर पत्ती
में सूरज था चमकता!
तुम्हारी हँसी की खनखनाहट में,
चाँदनी की मिशरी थी घुली!

ज़िन्दगी खूब थी तब,
साँसों की हर गिरह में,
खुलती-बंद होती,
साथ थी तुम!

गैंदे के फूल ने,
मुकम्मल कर दिया था हमें!
शीतल झरने के पानी सी,
बहती थी ज़िन्दगी रगों में!


(अब नाम लिया तुम्हारा तो होठों पर चुप सी है.....)

अब यह वक़्त है
कि पगडंडियों पर भटकता फिरता हूँ!
चाँद मुस्कुराता नहीं अब,
काँटों सी चुभती है चाँदनी भी!!

वक़्त कि चंचल लहरों पर बहते-बहते,
जाने कहाँ निकल आया हूँ!
इतनी दूर चला आया हूँ,
कि ज़िन्दगी के कई पन्ने,
यूँ ही अधखुले से,
फड़फड़ाते हुए जान पड़ते हैं!

((ज़िन्दगी खूब थी, दिया था गैंदे का फूल चुपके से तुम्हें....शिकायत नहीं अब भी कोई, इस तन्हाई से....))
August 5, 2012 at 5,51 P.M.

TOGETHER---


in life, there comes a time when one comes across someone
with whom everything can be shared
there are no secrets
there is nothing to hide
the tears and the laughter
all get equal space
that person should be held on to
with both hands
never to be let go
because that one person
is your soul mate.
July 21, 2012

Love for a Friend


Love is not merely unabashed sex.
It is more than that.
It is a warm hug,
a hand held in a warm hand,
fingers laced through each other's fingers;
holding on to each other physically,
bonding emotionally and mentally.
Looking into each other's eyes,
being honest,being open.
Comforting,being comforted.
Smiling,laughing.
Also certain that the shoulder would be offered
to cry on,if needed.
Loving a friend is not hard
if he/she has a true heart.
Be my friend forever,
I will not hurt you ever.
A friend's love I have for you,
and the feelings will remain true.
Stay blessed my friend
because you are one of a kind.
July 19, 2012

The wait...


she waited and watched,
a rustle,
a movement in the bushes,
soon that was gone too.

and she was alone,
nothing,
no one.

time had stood still.
had she been dreaming.

now reality stuck her.
no one,
not even a soul.
yes,
it was a delusion.

loneliness stared at her face.
She just waited and watched....
July 15, 2012 at 11.47 P.M.

Sunday, July 15, 2012

लिखना चाहती हूँ कुछ..........


तुमने लिखने को कहा,
तुम्हारे ही लिए!
लिखना चाहती हूँ,
भूमिका एवं उपसंहार के साथ!
जो मन में है,
सब पन्नों पर उतार देना चाहती हूँ!
शब्दों में बाँधना चाह रही हूँ तुम्हें,
पर जाने क्यों संभव नहीं हो पा रहा बाँधना तुम्हें!

कागज़-कलम ले बैठ गयी हूँ,
शब्द भाग रहे हैं इधर-उधर,
मुझ से पीछा छुड़ा!
कभी छिप रहे हैं किसी कोने में,
कभी जा बैठे हैं अलमारी के पीछे!
सामने आते हैं, पकड़ना चाहती हूँ,
पर जाने क्यों संभव नहीं हो पा रहा पकड़ना इन्हें!!

ढूँढ रही हूँ वो शब्द,
तुम्हें न्याय दे सकें जो!
पिरोना चाहती हूँ शब्दों को अपनी सोच में,
तुम्हें देना चाहती हूँ तोहफे में,
पर जाने क्यों संभव नहीं हो पा रहा पिरोना उन्हें!!!

(महसूस कर सकती हूँ तुमें हर साँस में.. शब्दों में कैसे बाँध लूँ तुम्हें.....)
(( न भूमिका में, न उपसंहार में, कैद नहीं कर सकती तुम्हें शब्दों में.....))
July 15, 2012 at 5.13 P.M.


Friday, July 13, 2012

यादें......


कडवी, खट्टी, मीठी,
आँखों से छलक जाएँ,
सब धुंधला जाता है!

हर खिड़की, हर दरवाज़े से
अन्दर आती हैं!
सरगोशियाँ करतीं, सहलातीं,
रूठ जातीं कभी, कभी खुद मनानें आतीं!

सरगोशियाँ करतीं,
दिल में बसतीं!
लफ़्ज़ों में बयाँ न हो पाएँ जब भी,
चुपके से आ जातीं हैं,
खामोश एहसास की तरह!

बीते लम्हों की यादें,
कठोर, कोमल!
खूँटी से टंगी,
कभी बिलकुल अकेली,
मेरे आने का इंतज़ार करतीं!

(पन्ने पलटते यादों की किताब के...सोचती हूँ--जाने किस गली में ज़िन्दगी से मुलाकात हो जाए.....)
July 13, 2012 at 12.04 A.M.

Sunday, July 8, 2012

छुअन.......


PART II OF ----तुम---बस कह देते-----मैं यकीन कर लेता-----

शब्दों की छुअन तो महसूस की तुमने भीतर तक ..
नर्म से, अपने आगोश में लेते, सहलाते कभी!
अपने पास बिठा, प्यार करते कभी!
और कभी खुरदरे, काँटों भरे,
लहू-लुहान करते, चीरते!

शब्दों को छोड़ चुप्पी आई जब बीच में,
तुम उसे भी समझ न पाए!
खामोशियों में छिपी तन्हाइयाँ
क्यों देख न पाए तुम?


(अपने थे तुम मेरे, सबसे प्रिये, कैसे सोचा तुमने कि शब्द ही सब कह पायंगे........)

मौन बहुत मुखर ...और शब्द हुए मौन.......
July 08, 2012 at 5.14 P.M.

तुम---बस कह देते-----मैं यकीन कर लेता-----


तुमने तो कहा था

प्यार के बंधन में बंध

हम दो से एक हो गए!

अब कुछ कहने की ज़रुरत नहीं,

खामोश होठों की जुबां भी समझ लूँगा!

तुम्हारी हर बात पर यकीन कर,

मैं तुम में रच-बस गयी!

क्या कहना था,

सब समझते थे तुम!

अब कुछ नहीं कहा,

यकीन उठ गया तुम्हारा!

मेरी ख़ामोशी नहीं समझे,

शब्द क्या समझोगे?

अब कहने को कुछ रहा नहीं,

तुम सुन ही नहीं रहे!!!!!!

(आदत हो गयी थी शब्दों की तुम्हें....ख़ामोशी से मेरी तन्हाईयाँ क्या तोड़ते तुम......)

[I had started writing this poem on September 16, 2011 at 5:07pm. Got back to it today, edited and completed it]

July 08, 2012 at 12.17 P.M.

Saturday, July 7, 2012

तेरा देखना.....



तुम्हारी आँखों से खुद को देख,
खुद पर गुमाँ हो आया है!
देखने के तुम्हारे अंदाज़ ने,
खुद से भी प्यार करवाया है!
मेरे दिल, मेरी रूह को,
तुम्हारे देखने से,
सकूँ आता है!
किसी और को देखने की,
कोई चाहत नहीं!
तुम्हारे देखने ने किया है ऐसा जादू,
कि मगरूर हो गए हैं!
अपनी नज़र-इ-इनायत बनाये रखना यूँ हीं,
आपके देखने ने हमें फ़लक तक पहुँचाया है!!!!
July 07, 2012 at 2.59 P.M.

Thursday, July 5, 2012

डर की परिभाषा.......



बेटी का पाणी-ग्रहन संस्कार तय हो गया!
गाड़ी, फ्रिज, ए.सी., फ्लैट स्क्रीन टी.वी.,
लैपटॉप, म्यूजिक प्लयेर, पाँच किलो सोना,
बारातियों के लिए राजसी भोग,
सब कुछ तो माँग लिया था,
लड़के वालों ने!
" अरी भागवान, डर मत,
सब हो जाएगा,
मैं जिंदा हूँ अभी!"

साब से मिन्नत करनी होगी,
दोस्तों के पास भी जाना होगा!
रिश्तेदारों के सामने,
हाथ जोड़ने होंगे!!
डर तो था मन में,
नहीं हो पाया तो.......

माँ तो माँ है,
कैसे न चिंता करे!
डर दुबक कर,
दिल के एक कोने में बैठ सा गया था!
कैसे होगा सब,
आख़िर बेटी के पाणी-ग्रहन का सवाल है?


बिटिया डरी सी,
पिछले कमरे में दुबकी बैठी थी!
घबराहट थी, डर था,
इतना न सहेज पाए बापू,
तो क्या मरना होगा मुझे भी?
क्या बड़ी दीदी की तरह,
गले में फंदा लगा,
लटकना होगा,
पीछे वाले कमरे के पंखे से????


(किसने कहा निडर हो??? सबका डर उनके साथ ही स्वास लेता है हर समय!!!!!!)
July 05, 2012 at 7.21 P.M.

inspired by Maya Mrig's lines---- सोचा, चाहा भी पर ....बहुत डर लगा अपना डर लिखते हुए....

(अपने डर सहेज कर जीता हूं...तुम कहते हो डर डर के जीता हूं... )

जीत तुम्‍हारी..........



कभी कभी लगता है,
ज़िन्दगी ठहर सी गयी है,
किसी के इंतज़ार में,
किसी ख्याल में गम-सुम और खामोश,
कुछ सोच रही है!
किसी भी हड़बड़ी से बहुत दूर,
बस हौले-हौले बहने वाले दरिया के,
कल-कल के समीप सरक रही है,
पुरानी यादों के आगोश में सिमट रही है!
पिछले कुछ दिनों से लगता है,
मैं खुद को तलाशते हुए,
किसी गली में भटक रही हूँ,
जिसके ओर-छोर का कोई अंदाज़ा नहीं!
बस एक हैरानी और विस्मृति का भाव,
चेहरे पर तैरता रहता है!
अचानक से याद आता है--
अरे कहाँ खो गयी मैं?
मुझे उस समय के बारे में कोई स्मरण नहीं,
जैसे मैं नहीं कोई और ,
जी रही थी मेरी ज़िन्दगी,
जिस पर मेरा कोई जोर न था!
एक वीणा की तरह झंकृत और तरंगित,
किसी और के हाथों,
बिना कोई शिकवा या शिकायत,
और कोई सवाल भी नहीं!
अचानक तुमने कहा-
"जीत तो मेरी ही हुई न आख़िर!"


(मैं हैरान थी, मेरे चुप रहने से तुम्हारी जीत कब हुई????)
July 05, 2012 at 4.53 P.M.

inspired by Maya Mrig's post-----जीत के जश्‍न की तैयारी कर लो, आती ही होगी खबर तुम तक....हमें जो हारना था....हार चुके...




Wednesday, July 4, 2012

ज़िन्दगी की उधेड़-बुन............


ज़िन्दगी की उधेड़-बुन में,

कभी मैं उलझी, कभी वक़्त उलझा!

सुई-धागे से,

चाक-ए गिरेबाँ सिलती रही!

थी अजीब सी उधेड़-बुन में,

कच्चा था धागा जान नहीं पायी!

वो कब आया, कब गया, क्या कह गया,

इसी उधेड़-बुन में, कुछ समझ न पायी!!!

शायद वहीँ रास्ते में रह गया कहीं,

कच्चे धागे की डोर से उसे बंधा न रख पायी!

ख्वाबों के सलमे-सितारे टाँकने थे उस धागे से,

न-उम्मीदी की कश-म-कश में,

न ख्वाब. न धागा,

न ज़िन्दगी ही बचा पायी!!!


(टूट गया है धागा, सुई को भी जंग लग गया है--उँगली है लहू-लुहान..ख्वाब हो गए हैं बोझिल--तुम अभी भी कहते हो मुझे सिलना नहीं आता.......

July 04, 2012 at 3.17 A.M.

Tuesday, July 3, 2012

बादल, सूरज, रंग....

डूबते सूरज ने उमड़ आये बादलों को रंग दे दिया,
इन्हीं रंगों से सराबोर मेरा जीवन,
हर रंग के साथ,
अपने वेग से आगे बढ़ता गया!
आज इन बादलों के रंगों से,
मेरे जीवन में कमी नहीं!
हर रंग अपने में खूबसूरती समेटे,
मेरे जीवन को महका रहा है!
आज शाम भी बादलों में,
डूबते सूरज के साथ,
मेरे जीवन के रंग दिखे!
आज फिर एहसास हुआ,
रंगीन है मेरा जीवन,
इन्हीं बादलों और सूरज के कारण!!!!!!
July 3, 2012 at 2.34 A.M.

Tuesday, June 26, 2012

शर्मनाक है यह भी......


समाज तय करता है,
अच्छी बहू, अच्छी पत्नी!
अच्छी माँ केवल बच्चे ही पहचान पाए!

अपनी महत्वाकांक्षाओं , सपनों, सुखदुख..और भूख प्यास को
बेटी पर न्योछावर करती!
केवल उस में जीती,
उसके लिए मरती!

बेटी लेकिन दादागिरी से,
अपनी ताकत और महत्व दिखाए!
अब माँ लहू में डूबी
अपने अंतर्मन को कैसे समझाए?

एक नयन संजीवन उसका,
एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में,
उतना ही अन्तर कोमल।

दावानल - सा जल रहा था,
हृदय में खून का हर कतरा!
भीषण अन्धकार था चहूँ ओर,
धुंआ, धुंआ, धुंआ.....

विस्फोटक और उग्र थे,
बेटी के कटाक्ष!
पागल कुतिया की तरह मार देने योग्य,
ऐसा मन में आया था!

द्वार पर आहट हुई,
छिन्न-भन्न होकर भी पुनः खुद को चुनती-बीनती, स्वस्थ व संतुलित करती,
स्वयं को समझती!
दुःख का अथाह सागर उसके सम्मुख ठहर ना पायेगा.
मान लिया कि तनिक गिरी थी,
पर उठने की अब ठानी है!
नहीं टूटूंगी क्योकि हर पीड़ा से ऊपर उठाना है,
आँसू पी कर भी जीवन को जीना है..............
June 26, 2012 at 12.25 A.M.