हलकी सी आवाज़ हुई,
वो कांप गयी!
हाथ उठते-उठते रुक गया,
चेहरे का रंग फक पड़ गया!
'क्या मेरी जासूसी करती हो?'
जवाब कहते न बन पाया!
उसके शब्द-भेदी बाण,
नश्तरों की तरह सीने में उतरते रहे!!
उसे नोच वो चला गया,
उसके लिए कुछ न रह गया!
ग़मों की दोपहरी ओढ़,
स्वयें में सिमटी वो,
दुबक पड़ी रही!
स्याह काली रात के अँधेरे से घने
ग़मों तले दबी वो,
दिल की धडकनें रुकने का इंतज़ार करती वो!!!!
August 30, 1.34 A.M.
CLOSE TO ME
My friends,
It feels good to have my own blog.....there are things which are close to my heart and things which have affected me one way or the other.....my thoughts,my desires,my aspirations,my fears my gods and my demons---you will find all of them here....I invite you to go through them and get a glimpse of my innermost feelings....................
It feels good to have my own blog.....there are things which are close to my heart and things which have affected me one way or the other.....my thoughts,my desires,my aspirations,my fears my gods and my demons---you will find all of them here....I invite you to go through them and get a glimpse of my innermost feelings....................
Tuesday, August 30, 2011
नायक और नेता.....
आज फिर खादी पहन कर निकला नेता,
'किसी चीज़ की कमी न होगी तुम्हें,' वो कहता!
खादी के मायने न समझता,
उसे बदनाम कर, अपनी जेबें भरता!
नायक खादी पहन दिखावा न करता,
केवल देश के लिए जीता, देश के लिए मरता!
न राजनीती का दम भरता,
न सत्ता के पीछे भागता!
सिर्फ आम आदमी के लिए लड़ता,
उसे इंसाफ दिलाने के लिए तत्पर रहता!
गर नायक है तुझे बनना,
नेता के पीछे मत भागना!
नेतागिरी से तो कुछ हासिल नहीं,
लोगों का नायक बन तो सब सही!
नेता जान बचाता भागता,
नायक के पीछे जहाँ चलता!!!!
August 30, 2011 at 12.23 A.M.
written after reading Jagjot Singh's post....
नेता और नायक में अंतर !
जो सत्ता के पीछे भागे वो नेता, और जिसके पीछे सत्ता भागे वो नायक, ..
नेता सदेव समाज को पीछे रख कर खुद आगे चलता है और नायक समाज के साथ चलता है..
नेता समाज की संपत्ति को स्वयं की मानता है, नायक स्वयं को भी समाज की संपत्ति मानता है
'किसी चीज़ की कमी न होगी तुम्हें,' वो कहता!
खादी के मायने न समझता,
उसे बदनाम कर, अपनी जेबें भरता!
नायक खादी पहन दिखावा न करता,
केवल देश के लिए जीता, देश के लिए मरता!
न राजनीती का दम भरता,
न सत्ता के पीछे भागता!
सिर्फ आम आदमी के लिए लड़ता,
उसे इंसाफ दिलाने के लिए तत्पर रहता!
गर नायक है तुझे बनना,
नेता के पीछे मत भागना!
नेतागिरी से तो कुछ हासिल नहीं,
लोगों का नायक बन तो सब सही!
नेता जान बचाता भागता,
नायक के पीछे जहाँ चलता!!!!
August 30, 2011 at 12.23 A.M.
written after reading Jagjot Singh's post....
नेता और नायक में अंतर !
जो सत्ता के पीछे भागे वो नेता, और जिसके पीछे सत्ता भागे वो नायक, ..
नेता सदेव समाज को पीछे रख कर खुद आगे चलता है और नायक समाज के साथ चलता है..
नेता समाज की संपत्ति को स्वयं की मानता है, नायक स्वयं को भी समाज की संपत्ति मानता है
Sunday, August 21, 2011
आज़ादी..
PART--I
मंगल गाओ, दीप जलाओ,
मेरे जन्मदिन पर मुस्कुराओ!
मैं आया तो तुम खुली हवा में साँस ले पाए,
तुम्हारे सपने साकार हो पाए!
बहुत संघर्ष के बाद मिला हूँ तुम्हें,
मुझे यूँ ही न खो देना!
रहूँगा साथ हर समें,
मुझे अपने दिल से न बिसरा देना!!!!
PART--II
अपने लहू से सींचा जिन्होंने हिंद की आज़ादी को,
आज उन से देश पर मिटने वाले सिरफिरे कहाँ हैं?
खादी पहन जिन्होंने अपने देश की आन बचाई,
आज होती है उसी खादी की रुसवाई!
पहन कर खादी निकलते हैं नेता शान से,
कितने गिर गए हैं सब अपने ईमान से!
कहते थे देश के लिए मर-मिटेंगे,
मुकर गए हैं आज अपनी जुबान से!
खा गए देश को, खोखला कर दिया सोने की चिड़िया को,
कहते हैं फिर भी गर्व है हिन्दुस्तानी होने पे!!!!!
PART--III
रस्मों-रिवाजों में जकड़ी,
मैं आज़ादी से पहले आज़ाद थी!
गाँधी संग चल,
मैं स्वदेश का हिस्सा थी!
आज भी मैं उन्हीं रस्मों में जकड़ी हूँ,
पर आज कोई गाँधी नहीं,
जो मुझे स्वदेशी की राह पर ले जाए!
किसका साथ दूं , किस आन्दोलन में,
छलनी है सीना देश का भ्रष्टाचार से!
आज प्रण लेती हूँ दिल से,
बदलाव लौंगी अपने विचारों से!
रस्मों-रिवाज़ भी दबा न पायेंगे मन के वेग को,
आज लड़ना है देश के भ्रष्टाचार से!!!!
August 15, 2011 at 10:12 A.M.
मंगल गाओ, दीप जलाओ,
मेरे जन्मदिन पर मुस्कुराओ!
मैं आया तो तुम खुली हवा में साँस ले पाए,
तुम्हारे सपने साकार हो पाए!
बहुत संघर्ष के बाद मिला हूँ तुम्हें,
मुझे यूँ ही न खो देना!
रहूँगा साथ हर समें,
मुझे अपने दिल से न बिसरा देना!!!!
PART--II
अपने लहू से सींचा जिन्होंने हिंद की आज़ादी को,
आज उन से देश पर मिटने वाले सिरफिरे कहाँ हैं?
खादी पहन जिन्होंने अपने देश की आन बचाई,
आज होती है उसी खादी की रुसवाई!
पहन कर खादी निकलते हैं नेता शान से,
कितने गिर गए हैं सब अपने ईमान से!
कहते थे देश के लिए मर-मिटेंगे,
मुकर गए हैं आज अपनी जुबान से!
खा गए देश को, खोखला कर दिया सोने की चिड़िया को,
कहते हैं फिर भी गर्व है हिन्दुस्तानी होने पे!!!!!
PART--III
रस्मों-रिवाजों में जकड़ी,
मैं आज़ादी से पहले आज़ाद थी!
गाँधी संग चल,
मैं स्वदेश का हिस्सा थी!
आज भी मैं उन्हीं रस्मों में जकड़ी हूँ,
पर आज कोई गाँधी नहीं,
जो मुझे स्वदेशी की राह पर ले जाए!
किसका साथ दूं , किस आन्दोलन में,
छलनी है सीना देश का भ्रष्टाचार से!
आज प्रण लेती हूँ दिल से,
बदलाव लौंगी अपने विचारों से!
रस्मों-रिवाज़ भी दबा न पायेंगे मन के वेग को,
आज लड़ना है देश के भ्रष्टाचार से!!!!
August 15, 2011 at 10:12 A.M.
CLOSURE....
Have never doubted the uncrtainty of life. However, yesterday its uncertainty hit with gale force. Came to know about the untimely demise of a former classmate and friend. Couldnot believe it then and the mind refuses to accept it even now. Young, smart, handsome, intelligent. Kafka, Nietzche, Pink Floyd were the mantras he lived by. Laughter could readily reach his eyes in those days. Serious talks, jokes: you name it and his contribution was there. Life was moving at its easy pace and nothing seemed amiss. The walks in the University, the sessions in the canteen, the motor cycle rides: what could go wrong! A free spirit, he was always looking for freedom of thought and action. No one felt that he would not achieve what he wanted. Over the years, everyone went their own way. Contact diminished. News about him filtered through sources. Some true, some untrue(that is what one would like to believe about one's friends, isn't it?). University trips meant that I would certainly get to meet him. Over the years he had changed. Laughter had changed to a smile which would rarely reach his eyes. Conversation was not so easy. Always felt I did most of the talking. A couple of more years and the smile was a mere twitch of the lips. There was no question of the twitch being reflected in the eyes. Laboured conversation. Perfunctory at the best. Friendly hug was ever full of self-consciousness. A hint of the old self when he said jokingly--'The professors will be scandalized if they see you in my room.' 'Hey come on, the door is open and everyone knows that we studied together.' Nothing futher. Usual small talk. Time for good bye. At that time, did not know that I would not get to see him ever.
More news filtered through. Not much of it were rumors. What had happened! Where had the carefreeness gone? Had life taken such a toll on him that nothing of his old self remained? Had cut off from everyone. Lonely existence sans those who could care about him. Did he want it that way or was there another reason? What demons were he fighting that he could never talk about them to anyone? What drove him to that? Of course, there would be no answers. Not any more. Always wanted to ask him things. Never got the opportunity for that. Too many things left unsaid. Too many questions went unanswered. What goes on behind closed doors, no one knows.He has taken his demons, his secrets, his sorrows, his lack of freedom and independence with him.
His death has shaken, rudely shocked. Cherish your friends. Talk to them. Be there for them. Communicate. And have closures if such a need arises.
August 12, 2011 at 6:35 P.M.
More news filtered through. Not much of it were rumors. What had happened! Where had the carefreeness gone? Had life taken such a toll on him that nothing of his old self remained? Had cut off from everyone. Lonely existence sans those who could care about him. Did he want it that way or was there another reason? What demons were he fighting that he could never talk about them to anyone? What drove him to that? Of course, there would be no answers. Not any more. Always wanted to ask him things. Never got the opportunity for that. Too many things left unsaid. Too many questions went unanswered. What goes on behind closed doors, no one knows.He has taken his demons, his secrets, his sorrows, his lack of freedom and independence with him.
His death has shaken, rudely shocked. Cherish your friends. Talk to them. Be there for them. Communicate. And have closures if such a need arises.
August 12, 2011 at 6:35 P.M.
Monday, August 8, 2011
बोलती रही चुप्पी...
बहुत कह चुके थे एक दूसरे को,
बहुत सुन चुके थे एक दूसरे को!
शब्दों के कई अर्थ निकाल,
अब दोनों शब्दों का आवरण उतार,
निशब्द खड़े थे इक दूजे के साथ!
अब उनकी चुप्पी बोल रही थी!
शायद अब उन्हें शब्द नहीं चाहिए थे,
अपने रिश्ते को और मज़बूत करने के लिए!
अब तो चुप्पी वो सब कह रही थी,
जो कभी शब्द न कह पाए!
अब वो और उनकी चुप्पी,
चल रही थी दाल हाथों में हाथ!
शब्दों का क्या काम था उनके बीच,
जब चुप्पी ने कह दिया था सब!!!!
August 8, 2011 at 6.04 PM.
बहुत सुन चुके थे एक दूसरे को!
शब्दों के कई अर्थ निकाल,
अब दोनों शब्दों का आवरण उतार,
निशब्द खड़े थे इक दूजे के साथ!
अब उनकी चुप्पी बोल रही थी!
शायद अब उन्हें शब्द नहीं चाहिए थे,
अपने रिश्ते को और मज़बूत करने के लिए!
अब तो चुप्पी वो सब कह रही थी,
जो कभी शब्द न कह पाए!
अब वो और उनकी चुप्पी,
चल रही थी दाल हाथों में हाथ!
शब्दों का क्या काम था उनके बीच,
जब चुप्पी ने कह दिया था सब!!!!
August 8, 2011 at 6.04 PM.
गहराया अँधेरा.....
अँधेरा और घना होता चला गया,
उसका अस्तित्व उस में गुम होता गया!
काला स्याह अँधेरा,
मन के भीतर छिपे असुरों सा,
अपने वेग से सब लुप्त करता गया!
कुछ न रहा, कुछ न बचा,
सब अँधेरे की भेंट चदता गया!
इतना गहराया अँधेरा,
कि सुबह होने का गुमां न रहा!
अपने संग सब ले,
अपने में सब समेट,
अँधेरा गहराता गया,
उसके अस्तित्व को ख़त्म करता गया!!!
August 8, 2011 at 3:50 P.M.
उसका अस्तित्व उस में गुम होता गया!
काला स्याह अँधेरा,
मन के भीतर छिपे असुरों सा,
अपने वेग से सब लुप्त करता गया!
कुछ न रहा, कुछ न बचा,
सब अँधेरे की भेंट चदता गया!
इतना गहराया अँधेरा,
कि सुबह होने का गुमां न रहा!
अपने संग सब ले,
अपने में सब समेट,
अँधेरा गहराता गया,
उसके अस्तित्व को ख़त्म करता गया!!!
August 8, 2011 at 3:50 P.M.
छिपा दर्द....
आँखों में चमक थी,
चेहरे पर खूबसूरत मुस्कान!
निगाहें हट ही नहीं रहीं थी,
उस चेहरे की आभा से!
जाने कहाँ से आया इक जोहरी,
कहा-मुझे है चेहरे के भावों की पहचान!
इक टक देखता रहा उसकी ओर,
लगा कि कहीं है दिल में चोर!
उसके करीब गया,
मन की निगाह से देखा!
पाया कि हँसी के तले,
आँखों की चमक के पीछे,
इक गहरी उदासी थी छाई!
दुनिया से छुपा अपना दर्द,
सदा थी मुस्काई!
किसी ने न भीतर झाँका,
न देखी मन की रुसवाई!
सब ने देखा हँसी का मुखोटा,
न देखी मन की रुलाई!
इसी मुखोटे को ओड़े, पहने,
उसने ज़िन्दगी बितायी!
August 8, 2011 at 12:42 A.M.
चेहरे पर खूबसूरत मुस्कान!
निगाहें हट ही नहीं रहीं थी,
उस चेहरे की आभा से!
जाने कहाँ से आया इक जोहरी,
कहा-मुझे है चेहरे के भावों की पहचान!
इक टक देखता रहा उसकी ओर,
लगा कि कहीं है दिल में चोर!
उसके करीब गया,
मन की निगाह से देखा!
पाया कि हँसी के तले,
आँखों की चमक के पीछे,
इक गहरी उदासी थी छाई!
दुनिया से छुपा अपना दर्द,
सदा थी मुस्काई!
किसी ने न भीतर झाँका,
न देखी मन की रुसवाई!
सब ने देखा हँसी का मुखोटा,
न देखी मन की रुलाई!
इसी मुखोटे को ओड़े, पहने,
उसने ज़िन्दगी बितायी!
August 8, 2011 at 12:42 A.M.
Sunday, August 7, 2011
विडम्बना........
औरत पीये तो छुप कर, मर्द पीये तो खुल कर!
औरत पीये तो शर्मिंदगी, मर्द पीये तो मर्दानगी!
औरत पीये तो संस्कृति के खिलाफ,
मर्द पीये दिन-रात बेबाक!
औरत पीये तो जीना हराम,
मर्द पीये सरे आम!
कैसी विडम्बना है रे समाज,
मर्द पीये तो सही,
औरत पीये तो चरित्र खराब....
August 7, 2011 at 9.28 P.M.
औरत पीये तो शर्मिंदगी, मर्द पीये तो मर्दानगी!
औरत पीये तो संस्कृति के खिलाफ,
मर्द पीये दिन-रात बेबाक!
औरत पीये तो जीना हराम,
मर्द पीये सरे आम!
कैसी विडम्बना है रे समाज,
मर्द पीये तो सही,
औरत पीये तो चरित्र खराब....
August 7, 2011 at 9.28 P.M.
Thursday, August 4, 2011
सपना के सपने
सपना ने कई सपने देखे होंगे
अपनी इस कच्ची उम्र में!
गुडिया से खेलेगी,
उसका ब्याह रचाएगी!
उसे क्या पता था,
कि सब सपने सपने ही रह जायेंगे!
उसे न तो गुडिया ही मिली,
न ही उसका ब्याह रच पाया!
उसके हाथ में थमा दी झाड़ू,
बचपन उसका खो गया कूड़े में!
न गुडिया न किताब,
उसके दुःख का नहीं कोई हिसाब!
पर, क्या वो जानती है
कि वो दुखी है?
उसे क्या मालूम कि गुडिया क्या और किताब क्या?
उसके लिए तो झाड़ू ही उसके जीवन की वास्तविकता है!!!!
August 4, 2011 at 5.54 P.M.
(inspired by maya mrig's post--कितनी अच्छी है काम वाली बाई की छह साल की बेटी सपना---खेल-खेल में पूरे घर का झाडू़ पौछा कर डालती है---)
अपनी इस कच्ची उम्र में!
गुडिया से खेलेगी,
उसका ब्याह रचाएगी!
उसे क्या पता था,
कि सब सपने सपने ही रह जायेंगे!
उसे न तो गुडिया ही मिली,
न ही उसका ब्याह रच पाया!
उसके हाथ में थमा दी झाड़ू,
बचपन उसका खो गया कूड़े में!
न गुडिया न किताब,
उसके दुःख का नहीं कोई हिसाब!
पर, क्या वो जानती है
कि वो दुखी है?
उसे क्या मालूम कि गुडिया क्या और किताब क्या?
उसके लिए तो झाड़ू ही उसके जीवन की वास्तविकता है!!!!
August 4, 2011 at 5.54 P.M.
(inspired by maya mrig's post--कितनी अच्छी है काम वाली बाई की छह साल की बेटी सपना---खेल-खेल में पूरे घर का झाडू़ पौछा कर डालती है---)
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