तुमने लकीर खींच दी हमारे बीच,
मैं मर्द, तुम औरत!
तुमने हर बार मुझ पर नज़र रखी,
मरे अन्दर तक झाँक,
सब जानना चाहा!
पर अपनी हर बात तुमने छुपा कर रखी!
मुझे हर बार आंकना चाहा तुमने!
मैंने किसी से हँस कर बात क्या कर ली,
तुमने सोचने लगे कि मैं मर्दों का ध्यान चाहती हूँ!
तुम भी तो औरतों से हँस-हँस बात करते हो!
तो मेरे हँस कर बात करने पर पाबंदियाँ क्यों?
मैं क्यों तुम्हें सफाई दूँ हर बार?
मैं क्यों दूँ अग्नि परीक्षा हर बार?
मैं जैसी हूँ, रहूँगी वैसी ही!
नहीं बदलूँगी तुम्हारे कहे!
बस तुम लकीर से हट देखो ज़रा,
मुझे भी अपने जैसा ही पाओगे!
नहीं फ़र्क है हम दोनों में,
क्योंकि मैं भी तुम्हारी ही तरह खुल कर हँसना चाहती हूँ!!!!!!!!!
January 25, 2012 at 12.33 A.M.