समाज तय करता है,
अच्छी बहू, अच्छी पत्नी!
अच्छी माँ केवल बच्चे ही पहचान पाए!
अपनी महत्वाकांक्षाओं , सपनों, सुखदुख..और भूख प्यास को
बेटी पर न्योछावर करती!
बेटी पर न्योछावर करती!
केवल उस में जीती,
उसके लिए मरती!
बेटी लेकिन दादागिरी से,
अपनी ताकत और महत्व दिखाए!
अब माँ लहू में डूबी
अपने अंतर्मन को कैसे समझाए?
एक नयन संजीवन उसका,
एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में,
उतना ही अन्तर कोमल।
एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में,
उतना ही अन्तर कोमल।
दावानल - सा जल रहा था,
हृदय में खून का हर कतरा!
भीषण अन्धकार था चहूँ ओर,
धुंआ, धुंआ, धुंआ.....
विस्फोटक और उग्र थे,
बेटी के कटाक्ष!
पागल कुतिया की तरह मार देने योग्य,
ऐसा मन में आया था!
द्वार पर आहट हुई,
छिन्न-भन्न होकर भी पुनः खुद को चुनती-बीनती, स्वस्थ व संतुलित करती,
स्वयं को समझती!
दुःख का अथाह सागर उसके सम्मुख ठहर ना पायेगा.
मान लिया कि तनिक गिरी थी,
पर उठने की अब ठानी है!
नहीं टूटूंगी क्योकि हर पीड़ा से ऊपर उठाना है,
आँसू पी कर भी जीवन को जीना है..............
आँसू पी कर भी जीवन को जीना है..............
June 26, 2012 at 12.25 A.M.