CLOSE TO ME
It feels good to have my own blog.....there are things which are close to my heart and things which have affected me one way or the other.....my thoughts,my desires,my aspirations,my fears my gods and my demons---you will find all of them here....I invite you to go through them and get a glimpse of my innermost feelings....................
Sunday, July 15, 2012
लिखना चाहती हूँ कुछ..........
Friday, July 13, 2012
यादें......
कडवी, खट्टी, मीठी,
आँखों से छलक जाएँ,
सब धुंधला जाता है!
हर खिड़की, हर दरवाज़े से
अन्दर आती हैं!
सरगोशियाँ करतीं, सहलातीं,
रूठ जातीं कभी, कभी खुद मनानें आतीं!
सरगोशियाँ करतीं,
दिल में बसतीं!
लफ़्ज़ों में बयाँ न हो पाएँ जब भी,
चुपके से आ जातीं हैं,
खामोश एहसास की तरह!
बीते लम्हों की यादें,
कठोर, कोमल!
खूँटी से टंगी,
कभी बिलकुल अकेली,
मेरे आने का इंतज़ार करतीं!
(पन्ने पलटते यादों की किताब के...सोचती हूँ--जाने किस गली में ज़िन्दगी से मुलाकात हो जाए.....)
Sunday, July 8, 2012
छुअन.......
PART II OF ----तुम---बस कह देते-----मैं यकीन कर लेता-----
शब्दों की छुअन तो महसूस की तुमने भीतर तक ..
नर्म से, अपने आगोश में लेते, सहलाते कभी!
अपने पास बिठा, प्यार करते कभी!
और कभी खुरदरे, काँटों भरे,
लहू-लुहान करते, चीरते!
शब्दों को छोड़ चुप्पी आई जब बीच में,
तुम उसे भी समझ न पाए!
खामोशियों में छिपी तन्हाइयाँ
क्यों देख न पाए तुम?
(अपने थे तुम मेरे, सबसे प्रिये, कैसे सोचा तुमने कि शब्द ही सब कह पायंगे........)
मौन बहुत मुखर ...और शब्द हुए मौन.......
तुम---बस कह देते-----मैं यकीन कर लेता-----
तुमने तो कहा था
प्यार के बंधन में बंध
हम दो से एक हो गए!
अब कुछ कहने की ज़रुरत नहीं,
खामोश होठों की जुबां भी समझ लूँगा!
तुम्हारी हर बात पर यकीन कर,
मैं तुम में रच-बस गयी!
क्या कहना था,
सब समझते थे तुम!
अब कुछ नहीं कहा,
यकीन उठ गया तुम्हारा!
मेरी ख़ामोशी नहीं समझे,
शब्द क्या समझोगे?
अब कहने को कुछ रहा नहीं,
तुम सुन ही नहीं रहे!!!!!!
(आदत हो गयी थी शब्दों की तुम्हें....ख़ामोशी से मेरी तन्हाईयाँ क्या तोड़ते तुम......)
[I had started writing this poem on September 16, 2011 at 5:07pm. Got back to it today, edited and completed it]
July 08, 2012 at 12.17 P.M.
Saturday, July 7, 2012
तेरा देखना.....
Thursday, July 5, 2012
डर की परिभाषा.......
बेटी का पाणी-ग्रहन संस्कार तय हो गया!
(अपने डर सहेज कर जीता हूं...तुम कहते हो डर डर के जीता हूं... )
जीत तुम्हारी..........
Wednesday, July 4, 2012
ज़िन्दगी की उधेड़-बुन............
ज़िन्दगी की उधेड़-बुन में,
कभी मैं उलझी, कभी वक़्त उलझा!
सुई-धागे से,
चाक-ए गिरेबाँ सिलती रही!
थी अजीब सी उधेड़-बुन में,
कच्चा था धागा जान नहीं पायी!
वो कब आया, कब गया, क्या कह गया,
इसी उधेड़-बुन में, कुछ समझ न पायी!!!
शायद वहीँ रास्ते में रह गया कहीं,
कच्चे धागे की डोर से उसे बंधा न रख पायी!
ख्वाबों के सलमे-सितारे टाँकने थे उस धागे से,
न-उम्मीदी की कश-म-कश में,
न ख्वाब. न धागा,
न ज़िन्दगी ही बचा पायी!!!
(टूट गया है धागा, सुई को भी जंग लग गया है--उँगली है लहू-लुहान..ख्वाब हो गए हैं बोझिल--तुम अभी भी कहते हो मुझे सिलना नहीं आता.......
July 04, 2012 at 3.17 A.M.