तुम सदियों से समाज के ठेकेदार थे,
न चलने का हक़ दिया,
न मुस्कराने का!
न हँसने का,
न बात करने का!
न आज़ादी दी,
न उड़ने दिया!
जीने का हक़ तो छीना ही था,
पैदा होने का हक़ भी छीन लिया!
न चलने का हक़ दिया,
न मुस्कराने का!
न हँसने का,
न बात करने का!
न आज़ादी दी,
न उड़ने दिया!
जीने का हक़ तो छीना ही था,
पैदा होने का हक़ भी छीन लिया!
तुमने कभी नहीं पूछा,
मैं क्या चाहती हूँ?
कभी जानने की कोशिश नहीं की,
क्या ला सकता है मेरे होठों पर मुस्कान?
मैं क्या चाहती हूँ?
कभी जानने की कोशिश नहीं की,
क्या ला सकता है मेरे होठों पर मुस्कान?
अपने से दो कदम पीछे रखना,
आदत थी तुम्हारी!
सब ले लिया,
अस्तित्व तक ख़त्म कर दिया!
आदत थी तुम्हारी!
सब ले लिया,
अस्तित्व तक ख़त्म कर दिया!
ऐसे में तुम में से एक ने कहा,
'मुझे फर्क पड़ता है!
तुम्हारा होना मायने रखता है!'
'मुझे फर्क पड़ता है!
तुम्हारा होना मायने रखता है!'
मरने से डरती नहीं थी वो,
रोज़ मरती थी!
उस एक की बात ने,
मुस्कान ला दी होठों पर!
रोज़ मरती थी!
उस एक की बात ने,
मुस्कान ला दी होठों पर!
जी सकती थी,
मरते हुए भी,
उस एक बात ने,
मायने दे दिए थे ज़िन्दगी को!
मरते हुए भी,
उस एक बात ने,
मायने दे दिए थे ज़िन्दगी को!
सब बदल गया था,
जी सकती थी अब,
अपनी मुस्कुराहटों के साथ!
क्योंकि जीना सिखा दिया था उसने!
जी सकती थी अब,
अपनी मुस्कुराहटों के साथ!
क्योंकि जीना सिखा दिया था उसने!
(July 4, 2016 at 1.00 A. M.)
कुठाराघात