कितना समय बीत गया, कैसे,
पता ही नहीं चला!
कितनीं बातें,
कितनीं यादें,
मीठी- कडवी,
सब याद था उसे!
मीठी यादों को ताज़ा कर,
जीवन के कड़वेपन को,
साथ मिलकर बाँटा था दोनों ने!
बच्चे बाँटते हैं जैसे सब,
दो दोस्त बाँटते हैं जैसे,
हर सुख-दुःख,
बाँटा था सब उन्होनें भी!
विचारों में,
समानता आने लगी थी!
पढ़ नहीं सकते किसी की सोच को,
पर, विचारों की गहराई,
समझने लगे थे इक दूसरे की!
कहा उसने:
"केवल दो लोग ही समझ पाए मुझे आज तक!
एक तुम और एक मेरा मित्र!"
धड़कन रुक गई,
समाँ ठहर गया,
रगों में खून जम सा गया!
ग़र वो दोस्त था,
तो मैं क्या हूँ?
झंझोड़ कर रख दिया,
इस सवाल ने!
तय नहीं कर पाया मैं,
कि हमारे विचारों में,
एकरुपता किस हद तक थी!
नीम के पत्तों से कड़वी बात,
गले के नीचे कैसे उतरे?
रिश्ते की मिठास को,
निगल गई बात की कड़वाहट!
कहा उसने:
"जिसे वह अपना मानने लगती है,
वह चला जाता है उसे छोड़!"
पर इस बार कोई छोड़कर नहीं जाने वाला उसे,
वह उसे खुद छोड़कर जाने वाली थी!
छोड़ जाने वाली थी,
अपने पीछे,
कुछ कड़वी-मीठीं यादें,
जो रहने वालीं थीं,
हर दम उसके साथ!
(मेरी सजा कितनी लंबी है, यह वक्त भी नहीं जानता! वह इस क़ैदखाने से आजाद हो चुकी थी ......)