CLOSE TO ME

My friends,
It feels good to have my own blog.....there are things which are close to my heart and things which have affected me one way or the other.....my thoughts,my desires,my aspirations,my fears my gods and my demons---you will find all of them here....I invite you to go through them and get a glimpse of my innermost feelings....................

Wednesday, May 22, 2013

पानी में लिखा ख़त........

तुम्हारे सपने,
कब केवल तुम्हारे हो गये,
पता ही नहीं चला!
वो तो हमारे थे--
तुम्हारे-मेरे!

बह चले जब तुम्हारी आँखों से,
मेरी आँखें नम होती चली गयीं!
बाढ़ की तरह बहते तुम्हारे सपने,
कोई मेढ़ न लगा पाया मैं!

पानी पर खत लिखना चाहा था तुम्हें,
बूँद-बूँद हो बिखर गया हर शब्द।
लिखना चाहा तो वही था इतने दिनों बाद,
जो तुम चाहती थी,
जाने क्यों सब नमीं के आगोश में समां,
उड़ता चला गया बादलों के संग!

बरसात के पानी के संग,
पानी पर लिखे शब्द,
छू जाते हैं कहीं आज भी मुझे,
तुम्हारे होने का एहसास दिला,
विलीन हो जाते हैं मिट्टी में!

पानी में लिखा तुम्हें वो ख़त,
अब फटने की हालत में है!
पानी में उदास चेहरा दिखता है,
बह चली है जो अब आँखों से!

(पानी ही तो है..... बह जाने दो--लिखावट तो तुम्हारी है, लिखने का अंदाज़ भी वही है.......)

May 22, 2013 at 1.21 A.M.

Tuesday, May 21, 2013

अधूरे प्यार की अधूरी ख्वाहिशें..................

हीर चली गई,
चला गया राँझा भी,
रह गया इक खाली मकान,
देखता था जिसे हर रोज़,
उस रास्ते से गुज़रते हुए!

हीर के न रहने से,
इक खालीपन था उस मकान में!
मन के अधूरे मकान में,
इक अधूरी कथा गूँज रही थी!
न छ्त, न कोई खिड़की!

सावन के ज़ख्म थे!
जिस्म के हर पोर को 
छलनी कर,
दिखते थे हर सू!

अधूरे से इस मकान में,
इक सपना न पूरे होने की टीस थी,
फाँस सी चुभती थी, जो सीने में!
धूल में मिलता हर सपना,
मानो आँखों ने कभी देखा ही न हो!

इक आह, अभाव,
खालीपन, इक रुदन,
बंजर ज़मीं, इक बाँझ की तरह,
रोती, कलपती!
खालीपन में ग्रस्त,
अथाह पीड़ा!

हारे हुए जुआरी की तरह,
बरादरी से निकाले हुए व्यक्ति जैसे,
क्षत-विक्षित व्यक्ति की परछाईं जैसा,
मन का खाली मकान!

(अधूरा मकान गवाह है, अधूरी ख्वाहिशों और अधूरे सपनों का......अधूरे मकान में दफ़्न होता है कई आहों का इतिहास.............)

May 20, 2013 at 11.52 P.M.

Sunday, May 19, 2013

रोकने से इश्क रुकता नहीं, सिर्फ देह रुकती है........


तुमने कैसे भुला दिया,
भादों में लिखे मेरे शब्दों को!
मेरे शब्द,
जिन में रजनीगंधा की खुशबू पहले से मिली  हुई थी!
तुम्हीं ने कहा था--
"न चाहते हुए भी उस खुशबू से खुद को बचा पाना आसान कहां था!"

अभी-अभी गये सावन के निशान बाकी थे,
आंचल में गीली मिट्टी की खुशबू ,
और बूंदों की नमी खूब-खूब भरी हुई थी!
मौसम मुस्कुरा कर मानो कह रहा था,
"उमंगों भरे दिन हैं,
मेरे शब्दों में लिपटे!"

मोहब्बत संभालकर रखी थी.
सावन की पहली बूंद की तरह,
हर शब्द में!
तुमने भुला दिया सब!
अब अमावस की  काली रात कितनी चमकदार हो उठी थी, 
बीच में न जाने कैसी सरहद उग आई थी, 
न जाने कैसे कोई सिरा टूट गया था,
मानो बजते-बजते सितार का तार टूट गया हो...

(रोकने से इश्क रुकता नहीं, सिर्फ देह रुकती है........ तुम्हें मिटाना था, मिटा दिया..... मैं लिख कर भी सब मिटा नहीं पाई...............)
May 19, 2013  at 1.57 A.M.







लफ़्ज़ों की धूप.......

बीते कई सारे सीले दिनों के बाद,
तुम्हारे ख़त को फिर से पढ़ने के बाद,
धूप निकल आई थी!
अनमनी सी, कुछ सुस्त सी,
धीरे-धीरे रेंगते हुई,
दिल के हर कोने को अपना करने की कोशिश कर रही थी!

हौले-हौले तुम्हारे लिखे लफ़्ज़,
अंगड़ाई ले,
खिल कर,
मुझ पर छा गये!
कोने में छुपी सीली उदासियों को,
खींच-खींच कर बाहर निकाल,
बहुत सी बातें याद दिलाने लगे!!!

ध्यान आया,
कि मन के अहाते में,
न जाने कितने उदास दिन,
जाने कब से जमा हैं!
सोचा क्यों ना आज उन्हें,
कुछ धूप दिखा दी जाये!

चुन-चुन कर सारे कोने खंगाले,
पोटलियाँ निकलीं,
कैसे-कैसे दिन निकले थे,
लम्हे कैसे कैसे,
हर लम्हे की न जाने कितनी दास्तानें,
किसी सीले से दिन के पेहले में,
कोई आंसू छुपा बैठा था,
तो किसी पेहलू में गीली सी मुस्कुराहट,
तुम्हारे ख़त ने सब याद करवा दिया!!

(स्मृतियों की पांखें कितनी बड़ी होती हैं, पलक झपकते ही युगों की यात्रायें तय कर लेती हैं......)
((इधर तुम्हारे लफ़्ज़ों की धूप उदास दिनों को सेहला रही थी, उधर अतीत की स्मृतियाँ अतीत के बियाबाँ में भटक रही थी.........))
May 19, 2013 at 1.14 A.M.

Thursday, May 16, 2013

खण्ड......



मैं स्थिर खड़ी थी,
उसने पलटकर नहीं देखा!
देखता तो मुझे वहीं खड़ा पाता,
जहां छोड़ गया था वो!

फिर वो पलटा,
ठिठका,
मेरी ओर देखा!
उम्मीद का एक अधभुझा सूरज,
मटमैली सी रोशनी बिखेरने लगा!

दिल की धड़कन जाने क्यों,
तेज़ हो गयी थी उसके पलटने से?
जानती तो थी कि इस बार उसका पलटना,
केवल वही था-- मात्र पलटना!

मैं जाना चाहती थी उसके पीछे,
कमीज़ पकड़ रोकना चाहती थी उसे!
कमीज़ पकड़ती, वो पलटता,
तो मालूम हो जाता उसे
'चले जाने का अर्थ!'
'चले जाने का अर्थ,'
वो नहीं था जो उसने समझा था!

'चले जाने का अर्थ,'
"चले जाने" के अलावा,
सब हो सकता था---
"मत जाओ,"
"जाओगे तो तब जब जाने दूँगी,"
"बाँह छुड़ा कर कहाँ जाओगे?"

तुम क्यों नहीं समझ पाये,
मेरे केहने का अर्थ?

कई खण्डों में बिखर गयी थी,
भाँती-भाँती की आकृतियाँ बनाते,
और फिर खण्डित हो जाते यह खण्ड!
मेरे अस्तित्व को खुद में समेटे,
अनगिनत यह खण्ड,
तुम्हारे जाने से अर्थहीन हो गये थे!

वो चला गया,
चलता ही गया!
आसमां के रंग बदल गये,
ज़िंदगी ने रास्ता मोड लिया!
तुम्हारे पलटने से,
दुनिया ही बदल गई!!

(तन्हा नहीं हूँ...एकाकीपन है....पलट जाते तुम....हम 'एकाकीपन' से "एक" हो जाते......)
May 16, 2013 at 10.33 A.M.

Monday, May 13, 2013

खिड़की के झरोखे से..............




चुपके से आ गई थी,
खिड़की के झरोखे से,
हर ओर रोशनी बिखेरती,
हाँ, वो खुशी ही तो थी!
मेरी उदास आँखों में,
चमकती;
रात में जुगनू की तरह टिमटिमाती,
चांदनी के धागे में पिरोई,
हर साँस को अर्थपूर्ण करती,
हाँ, वो खुशी ही तो थी!

फिर अचानक इक तूफान आया,
इक आँधी आई,
खिड़की के झरोखे से आई,
हर खुशी को अपने संग,
उड़ा ले गई!

इक गुबार सा रह गया था पीछे,
धूल ही धूल हर ओर,
गर्म हवायें,
भीतर तक सब सर्द करतीं!
इक उदासी छायी है,
आसमान ज़रद-ओ-टेसू हुआ जाता है,
दस्तक दे रही है उदासी हर सू,
मानो खुशी ने थामा ना हो हाथ कभी!!!


(भरोसा था खुशी पर जिन्हें, चल दिए आज वो भी उदासियों की ओर......)
May 13, 2013 at 1.58 A.M.

Monday, April 1, 2013

घर का सपना.......


इक घर का सपना देखा था,
अपना इक आँगन होगा, ऐसा सोचा था!
बच्चों की खिलखिलाहट गूँजेगी हर ओर,
मन झूमेगा थाम हँसी की डोर!

घर का सपना तो सपना ही रह गया,
जिम्मेदारियों के ढेर में बह गया!
न घर, न घर का आँगन,
न अपना कहने को कोई प्रांगण!

कीकर के काँटों सी फाँस चुब्ती है मन मैं,
घर की आस दबी जब से मन में!
पथरों से बना शहर है खड़ा मुँह बाए,
मैं बैठा हूँ घर की आस बिसराए!
(This poem is inspired by Maya Mrig's post-- छोटे से घर का सपना मन में घर कर गया जब से----मैदान में कीकर का जंगल कुछ और बढ़ गया----)