कई दृश्य,
मेरी आँखों के सामने,
घटते, बढ़ते।
छू जाते मन को कुछ,
अछूता रहता मन कभी।
उस एकमात्र दृश्य में,
मेरी उपस्थिति,
कभी सम्पूर्णता से दर्ज नहीं हो सकी।
कभी आधी, कभी पौनी,
कभी केवल स्पर्श भर।
शायद उस दृश्य का,
कोई भौगोलिक, ऐतिहासिक,
समकालीन, आधारभूत सत्य,
मैं जान नहीं पायी कभी।
उस दृश्य की,
सिमटी हवाओं के,
रुदन से
भला कैसे परिचित हो सकती हूँ मैं?
जिस दृश्य में मैं कैद हूँ,
वही अपने आप में,
कई बेचैनियों से गुजरते हुए जीवन का प्रतिबिम्ब,
पूर्णतया समेटे हुए,
बिल्कुल ऐसे कि
बादलों से घिरी साँझ के समय,
देख रही हूँ उस दृश्य का घटना और बढ़ना।
December 2, 2013 at 11.21 P.M.